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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

मृत्यु जीवन का एक अटल सत्य है

मृत्यु एक सत्य हैं Mrityu Ek Atal Satya Hain यह सत्य वचन एक हिंदी कहानी के जरिये आपके सामने रखा गया हैं | जीवन जन्म और मृत्यु के बीच का एक भ्रम हैं जिसे हम अनन्तकाल तक देखते हैं वास्तव में वह मृत्यु तक ही सीमित हैं | पढ़े हिंदी कहानी मृत्यु एक अटल सत्य हैं Mrityu Ek Atal Satya Hain………





मृत्यु सत्य हैं

एक राधेश्याम नामक युवक था | स्वभाव का बड़ा ही शांत एवम सुविचारों वाला व्यक्ति था | उसका छोटा सा परिवार था जिसमे उसके माता- पिता, पत्नी एवम दो बच्चे थे | सभी से वो बेहद प्यार करता था |

इसके अलावा वो कृष्ण भक्त था और सभी पर दया भाव रखता था | जरूरतमंद की सेवा करता था | किसी को दुःख नहीं देता था | उसके इन्ही गुणों के कारण श्री कृष्ण उससे बहुत प्रसन्न थे और सदैव उसके साथ रहते थे | और राधेश्याम अपने कृष्ण को देख भी सकता था और बाते भी करता था | इसके बावजूद उसने कभी ईश्वर से कुछ नहीं माँगा | वह बहुत खुश रहता था क्यूंकि ईश्वर हमेशा उसके साथ रहते थे | उसे मार्गदर्शन देते थे | राधेश्याम भी कृष्ण को अपने मित्र की तरह ही पुकारता था और उनसे अपने विचारों को बाँटता था |

एक दिन राधेश्याम के पिता की तबियत अचानक ख़राब हो गई | उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया | उसने सभी डॉक्टर्स के हाथ जोड़े | अपने पिता को बचाने की मिन्नते की | लेकिन सभी ने उससे कहा कि वो ज्यादा उम्मीद नहीं दे सकते | और सभी ने उसे भगवान् पर भरोसा रखने को कहा |

तभी राधेश्याम को कृष्ण का ख्याल आया और उसने अपने कृष्ण को पुकारा | कृष्ण दौड़े चले आये | राधेश्याम ने कहा – मित्र ! तुम तो भगवान हो मेरे पिता को बचा लो | कृष्ण ने कहा – मित्र ! ये मेरे हाथों में नहीं हैं | अगर मृत्यु का समय होगा तो होना तय हैं | इस पर राधेश्याम नाराज हो गया और कृष्ण से लड़ने लगा, गुस्से में उन्हें कौसने लगा | भगवान् ने भी उसे बहुत समझाया पर उसने एक ना सुनी |

 तब भगवान् कृष्ण ने उससे कहा – मित्र ! मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ लेकिन इसके लिए तुम्हे एक कार्य करना होगा | राधेश्याम ने तुरंत पूछा कैसा कार्य ? कृष्ण ने कहा – तुम्हे ! किसी एक घर से मुट्ठी भर ज्वार लानी होगी और ध्यान रखना होगा कि उस परिवार में कभी किसी की मृत्यु न हुई हो | राधेश्याम झट से हाँ बोलकर तलाश में निकल गया | उसने कई दरवाजे खटखटायें | हर घर में ज्वार तो होती लेकिन ऐसा कोई नहीं होता जिनके परिवार में किसी की मृत्यु ना हुई हो | किसी का पिता, किसी का दादा, किसी का भाई, माँ, काकी या बहन | दो दिन तक भटकने के बाद भी राधेश्याम को ऐसा एक भी घर नहीं मिला |

तब उसे इस बात का अहसास हुआ कि मृत्यु एक अटल सत्य हैं | इसका सामना सभी को करना होता हैं | इससे कोई नहीं भाग सकता | और वो अपने व्यवहार के लिए कृष्ण से क्षमा मांगता हैं और निर्णय लेता हैं जब तक उसके पिता जीवित हैं उनकी सेवा करेगा |

थोड़े दिनों बाद राधेश्याम के पिता स्वर्ग सिधार जाते हैं | उसे दुःख तो होता हैं लेकिन ईश्वर की दी उस सीख के कारण उसका मन शांत रहता हैं |

दोस्तों इसी प्रकार हम सभी को इस सच को स्वीकार करना चाहिये कि मृत्यु एक अटल सत्य हैं उसे नकारना मुर्खता हैं | दुःख होता हैं लेकिन उसमे फँस जाना गलत हैं क्यूंकि केवल आप ही उस दुःख से पिढीत नहीं हैं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति उस दुःख से रूबरू होती ही हैं | ऐसे सच को स्वीकार कर आगे बढ़ना ही जीवन हैं |

कई बार हम अपने किसी खास के चले जाने से इतने बेबस हो जाते हैं कि सामने खड़ा जीवन और उससे जुड़े लोग हमें दिखाई ही नहीं पड़ते | ऐसे अंधकार से निकलना मुश्किल हो जाता हैं | जो मनुष्य मृत्यु के सत्य को स्वीकार कर लेता हैं उसका जीवन भार विहीन हो जाता हैं और उसे कभी कोई कष्ट तोड़ नहीं सकता | वो जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ता जाता हैं |


सभी सामग्री इंटरनेट से ली गई है

सोमवार, 18 जून 2012

नेता बनाम आम आदमी


नेता!
एक ऐसा शब्द जिसके सामने आते ही बस हर कोई अपनी भड़ास निकलने की जी तोड़ कोशिश करता है! बिक गए हैं नेता! भ्रष्ट हो गए हैं नेता! गरीबी, भूख-मरी, बाढ़… जिम्मेदार यही नेता हो हैं! अरे साहब इन्हें तो लाइन से खड़ा कर के गोली मार देनी चाहिए! इस देश की जो हालत हुई है उसके लिए यही प्रजाति तो जिम्मेदार है…………… पर सवाल ये है की इस प्रजाति में ऐसा अलग क्या है जो बाकि हिन्दुस्तानियों में नहीं है ………. या यूँ कहें की आम आदमी में नहीं है ?
हाँ ये सवाल थोडा टेढ़ा हो गया….. अच्छा ठीक है सवाल ऐसे करते हैं …… आम आदमी किस तबके से आता है ??? ऊपर से चलें या नीचे से ??? अच्छा बीच से कहीं से उठाते हैं …… बाबु … ये शब्द तो बहुत ऊँचे लोगो के लिए तो नहीं है न ………. कितने प्रतिशत बाबु आप का काम बिना रिश्वत लिए कर देते हैं ??? या कितने प्रतिशत जूनियर इंजीनियर (J.E.) भ्रष्ट नहीं है ??? शिक्षक ……… समाज का सबसे प्रबुद्ध वर्ग….. कितने प्रतिशत शिक्षक अपना कार्य कर्त्तव्य परायणता के साथ करते हैं ………. क्या ये भारत की आम जनता नहीं है ???
और आगे चलते हैं ……..
सरकार तो कुछ काम ही नहीं करती …… अब भाई सरकार क्या करे ?? योजना ही तो चला सकती है पर वो आम आदमी के नाम पर कमाने का साधन मात्र है… यही ना ?? अब सरकार ने गरीब बच्चों के लिए एक पहल की – ‘मिड-डे मिल’ ! शायद आप में से कुछ लोगो ने नाम भी सुना होगा …. होता क्या है या तो जो बनता है वो खाने लायक नहीं रहता या फिर ऊपर वाले (ये बहुत ऊपर वाले नहीं है आम आदमी में से हैं ) लोग खा के ख़तम कर देतें है . अब सरकार क्या करे … वो तो आम आदमी का कुछ भला करना चाहती भी है तो आम आदमी आदमी एक दुसरे का हक मरने पे तुला हुआ है और दोष तो सरकार को ही मिलना है…..
मेरे यहाँ यहीं बगल में नॉएडा स्टेडियम है पर उसमे जो कुछ भी लगाया जाता है लोग घुस के चुरा के ले जाते हैं और बेच देते हैं ……… अब स्पोर्ट्स में सुविधा कहाँ से आये …… या तो मैंदान बना के उसमे किसी को खेलने न दिया जाये तो सारी सुविधा रहेंगी या फिर आम आदमी सुधर जाये तो ………
शायद अभी भी मैं कुछ लोगों के ‘आम आदमी’ की व्याख्या नहीं कर पा रहा हूँ तो वो ऐसे कर देता हूँ : कोई भी १०० गरीब ग्राम चुना जाये उसमे से यद्रिछ्या (at random) १०० लोगो(हर गावं से कोई भी एक आदमी) को चुना जाये और हर इन सभी को १-१ लाख रुपये दे दिए जायें की आप अपने गाँव के गरीबों में बाट दीजियेगा………. जितने प्रतिशत रुपया सही और जरुरत मंद लोग (वो देने वाले का रिश्तेदार ना हो, गरीब हो) को मिल पाए बस उतने प्रतिशत भारतीय भ्रष्ट नहीं हैं! और बाकि आप समझ ही गए होंगे की इसकी क्या सम्भावना है ……………..
सच्चाई ये भी है की यहाँ इमानदार को बेवकूफ भी समझा जाता है … मैं किसी और का क्या उदाहरण दूं मैं अपना हे देता हूँ ! मैं ट्रेन में सफ़र कर रहा था और मेरे टिकट न मिल पाने की वजह से मैं सामान्य श्रेणी का टिकट लेके और शयनयान में बैठ गया टीटी आया तो मैंने उसे टिकट बनाने को कहा ये जानते हुए भी की इतनी भरी ट्रेन में सीट नहीं मिल पायेगी और २५० रूपये अतिरिक्त भी देने होंगे पर चुकी नियम यही है इसलिए टीटी को १०० रूपये पकड़ाने की जगह मैंने ये रास्ता चुना ….. आम आदमी मेरे अगल बगल मुझे ये समझा रहे थे की आप को सीट भी नहीं मिलेगी …… यानि की रिश्वत देके काम चलाओ …….. और ऐसा नहीं करने के कारन मैं उनकी नज़रों में एक ईमानदार नहीं मुर्ख व्यक्ति ही था और हूँ ……….
साहब यही हालत और हालात हैं नेता के पास भ्रष्ट होने के ज्यादा तरीके हैं इसलिए वो ज्यादा भ्रष्ट हैं ! जिस भी आम आदमी के पास वो तरीका आएगा वो ही भ्रष्ट हो जायेगा अपवाद तो अब भी हैं तब भी रहेंगे! जिसे मैका नहीं मिलेगा वो गली देगा!
मानो या न मानो आम आदमी ज्यादा भ्रष्ट है! ये नेता भी इन्ही में से एक है जो अब खास हो गया है! जिस दिन मेरे देश का आम आदमी सुधर जायेगा उस दिन इस देश में भ्रस्टाचार फ़ैलाने वाले नहीं रह पाएंगे!
नोट: यहाँ मेरा मकसद भारतीयों को भ्रष्ट कहना नहीं है बल्कि ये कहना है की अपनी सरकार को हर बात पे कोसने के पहले हमे सोचना चाहिए की हम क्या कर रहे हैं !
ये लोकतंत्र भी हमारा है इसे गाली देना देश का अपमान ही है बेहतर है की हम कुछ सार्थक करें!

मंगलवार, 15 मई 2012

सब कुछ एक साथ नहीं

एक धर्मोपदेशक मुल्ला जी उपदेश देने के लिए हॉल में पहुंचे। एक दूल्हे को छोड़कर उस हॉल में और कोई मौजूद नहीं था। वह दूल्हा सामने की सीट पर बैठा था।
असमंजस में पड़े मुल्ला जी ने दूल्हे से पूछा - "सिर्फ तुम ही यहाँ मौजूद हो। मुझे उपदेश देना चाहिए या नहीं?"
दूल्हे ने उनसे कहा - "श्रीमान। मैं बहुत साधारण आदमी हूं और मुझे यह सब ठीक से समझ में नही आता। लेकिन यदि मैं एक अस्तबल में आऊँ और यह देखूं कि एक घोड़े को छोड़कर सभी घोड़े भाग गए हैं, तब भी मैं उस अकेले घोड़े को खाने के लिए चारा तो दूंगा ही।"
मुल्ला जी को यह बात लग गई और उन्होंने उस अकेले व्यक्ति को दो घंटे तक उपदेश दिया। इसके बाद मुल्ला जी ने अतिउत्साहित होकर उससे पूछा - "तो तुम्हें मेरा उपदेश कैसा लगा?"
दूल्हे ने उत्तर दिया - "मैंने आपको पहले ही कहा था कि मैं बहुत साधारण आदमी हूं और मुझे यह सब ठीक से समझ में नही आता। लेकिन यदि मैं एक अस्तबल में आऊँ और यह देखूं कि एक घोड़े को छोड़कर सभी घोड़े भाग गए हैं, तब मैं उस अकेले घोड़े को खाने के लिए चारा तो दूंगा परंतु सारा चारा एकबार में ही नहीं दे दूंगा।"

शनिवार, 12 मई 2012

वह बुजुर्ग लकड़हारा राजा था!


राजा भोज एक दिन खाली समय में नदी के किनारे टहल रहे थे। वे हरे-भरे वृक्षों और सुंदर फूलों को निहार रहे थे। तभी उन्हें सिर पर लकड़ियों का बंडल लादकर ले जाता एक व्यक्ति दिखायी दिया। उस वृद्ध व्यक्ति के सिर पर लदा बोझ बहुत भारी था और वह पसीने से तर हो रहा था। लेकिन वह प्रसन्न दिखायी दे रहा था। राजा ने उस व्यक्ति को रोकते हुए पूछा - “सुनो, तुम कौन हो? “ उस व्यक्ति ने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया - “मैं राजा भोज हूं। “ यह सुनकर राजा भोज भौचक्के रह गए और पूछा - “कौन? “

उस व्यक्ति ने पुनः उत्तर दिया - “राजा भोज! “ राजा भोज जिज्ञासा से भर गए। वे बोले - “यदि तुम राजा भोज हो तो अपनी आय के बारे में बताओ? “ लकड़हारे ने उत्तर दिया - “हां, हां क्यों नहीं, मैं प्रतिदिन छह पैसा कमाता हूं। “

राजा ने उसकी जेब में मौजूद इस भारी धन के बारे में सोचा। कोई व्यक्ति छह पैसे प्रतिदिन कमाकर भी अपनेआप को राजा कैसे मान सकता है? और वह इतना खुश कैसे रह सकता है? राजा ने अपनी अनगिनत समस्याओं और चिंताओं के बारे में विचार किया। वह उस व्यक्ति के बारे में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा - “यदि तुम सिर्फ छह पैसे प्रतिदिन कमाते हो तो तुम्हारा खर्च कितना है? क्या तुम वास्तव में राजा भोज हो? “

उस वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया - “यदि आप वास्तव में जानना चाहते हैं तो मैं बताता हूं। मैं प्रतिदिन छह पैसा कमाता हूं। उसमें से एक पैसा मैं अपनी पूंजी के मालिक को देता हूं, एक पैसा मंत्री को और एक ऋणी को। एक पैसा मैं बचत के रूप में जमा करता हूं, एक पैसा अतिथियों के लिए और शेष एक पैसा मैं अपने खर्च के लिए रखता हूं। “ अब तक राजा भोज पूर्णतः विस्मित हो चुके थे। “क्या खूब योजना है! क्या खूब दृष्टिकोण! वह भी इतनी कम आय वाले व्यक्ति की!..... लेकिन यह कैसे संभव है? इस पहेली में उलझकर राजा ने फिर पूछा - “कृपया विस्तार से बतायें, मुझे कुछ ठीक से समझ में नहीं आया। “

लकड़हारे ने उत्तर दिया - “ठीक है! मेरे माता-पिता मेरी पूंजी के मालिक हैं। क्योंकि उन्होंने मेरे लालन-पालन में निवेश किया है। उन्हें मुझसे यह आशा है कि बुढ़ापे में मैं उनकी देखभाल करूं। उन्होंने मेरे लालन-पालन में यह निवेश इसीलिए किया था कि समय आने पर मैं उन्हें उनका निवेश ब्याज समेत लौटा सकूं। क्या सभी माता-पिता अपनी संतान से यह अपेक्षा नहीं करते? “

राजा ने तत्परता से पूछा - “और तुम्हारा ऋणी कौन है? “ वृद्ध व्यक्ति ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया - “मेरे बच्चे! वे नौजवान हैं। यह मेरा फर्ज़ है कि मैं उनका सहारा बनूं। लेकिन जब वे वयस्क और कमाने योग्य हो जायेंगे, वे उसी तरह मेरा निवेश लौटाना चाहिये जैसे मैं अपने माता-पिता को लौटा रहा हूं। इस तरह उन्हें भी अपना पितृऋण चुकाना होगा। “

राजा ने कम शब्दों में पूछा - “और तुम्हारा मंत्री कौन है? “ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया - “मेरी पत्नी! वही मेरा घर चलाती है। मैं उसके ऊपर शारीरिक और भावनात्मक रूप से निर्भर हूं। वही मेरी सबसे अच्छी मित्र और सलाहकार है। “

राजा ने संकोचपूर्वक पूछा - “तुम्हारा बचत खाता कहां है? “ वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया - “जो व्यक्ति अपने भविष्य के लिए बचत नहीं करता, उससे बड़ा बेवकूफ और कोई नहीं होता। जीवन अनिश्चितताओं से भरा हुआ है। प्रतिदिन मैं एक पैसा अपने खजाने में जमा करता हूं। “

राजा बोले - “कृपया बताना जारी रखें। “ लकड़हारे ने उत्तर दिया - “पांचवा पैसा मैं अपने अतिथियों की खातिरदारी के लिए सुरक्षित रखता हूं। एक गृहस्थ होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है कि मेरे घर के द्वार सदैव अतिथियों के लिए खुले रहें। कौन जाने कब कोई अतिथि आ जाये? मुझे पहले से ही तैयारी रखनी होती है। “
उसने मुस्काराते हुए अपनी बात जारी रखी - “और छठवां पैसा मैं अपने लिए रखता हूं। जिससे मैं अपने रोजमर्रा के खर्च चलाता हूं। “

अपनी समस्त जिज्ञासाओं का समाधान पाकर राजा भोज उस लकड़हारे से बहुत प्रसन्न हुए।
निश्चित रूप से प्रसन्नता और संतुष्टि का धनसंपदा, पद और सांसारिक वैभव से कोई लेना-देना नहीं है। वर्तमान स्थिति के प्रति आपका व्यवहार और स्वभाव ही सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। यदि कोई व्यक्ति अपने को उपलब्ध साधनों के अनुरूप ही जीवनजीने की कला सीख ले तो वह काफी कुछ प्राप्त कर सकता है। यही सकारात्मक सोच और सही व्यवहार की शक्ति है। वह बुजुर्ग लकड़हारा वास्तव में राजा था क्योंकि उसका नजरिया ही राजा की तरह था!

सबसे सटीक उत्तर


गणित की टीचर ने 07 वर्ष के अर्नब को गणित पढ़ाते समय पूछा - “यदि मैं तुम्हें एक सेब, एक सेब और एक सेब दूं तो तुम्हारे पास कुल कितने सेब हो जायेंगे? “ कुछ ही सेकेण्ड में अर्नब ने उत्तर दिया - “चार! “

नाराज टीचर को अर्नब से इस सरल से प्रश्न के सही उत्तर (तीन) की आशा थी। वह नाराज होकर सोचने लगी - “शायद उसने ठीक से प्रश्न नहीं सुना। “ यह सोचकर उसने फिर प्रश्न किया - “अर्नब ध्यान से सुनो, यदि मैं तुम्हें एक सेब, एक सेब और एक सेब दूं तो तुम्हारे पास कुल कितने सेब हो जायेंगे? “

अर्नब को भी टीचर के चेहरे पर गुस्सा नजर आया। उसने अपनी अंगुलियों पर गिना और अपनी टीचर के चेहरे पर खुशी देखने के लिए थोड़ा हिचकिचाते हुए उत्तर दिया - “चार! “

टीचर के चेहरे पर कोई खुशी नज़र नहीं आयी। तभी टीचर को याद आया कि अर्नब को स्ट्राबेरी पसंद हैं। उसे सेब पसंद नहीं हैं इसीलिए वह प्रश्न पर एकाग्रचित्त नहीं हो पा रहा है। बढ़े हुए उत्साह के साथ अपनी आँखें मटकाते हुए टीचर ने फिर पूछा - “यदि मैं तुम्हें एक स्ट्राबेरी, एक स्ट्राबेरी और एक स्ट्राबेरी दूं तो तुम्हारे पास कुल कितनी स्ट्राबेरी हो जायेंगी? “

टीचर को खुश देखकर अर्नब ने फिर से अपनी अंगुलियों पर गिनना शुरू किया। इस बार उसके ऊपर कोई दबाव नहीं था बल्कि टीचर के ऊपर दबाव था। वह अपनी नयी योजना को सफल होते देखना चाहती थीं। थोड़ा सकुचाते हुए अर्नब ने टीचर से पूछा - “तीन? “

टीचर के चेहरे पर सफलता की मुस्कराहट थी। उनका तरीका सफल हो गया था। वे अपने आप को बधाई देना चाहती थीं। लेकिन एक चीज बची हुयी थी। उन्होंने अर्नब से फिर पूछा - “अब यदि मैं तुम्हें एक सेब, एक सेब और एक सेब दूं तो तुम्हारे पास कुल कितने सेब हो जायेंगे? “

अर्नब ने तत्परता से उत्तर दिया - “चार। “

टीचर भौचक्की रह गयीं। उन्होंने खिसियाते हुए कठोर स्वर में पूछा - “कैसे अर्नब, कैसे? “ अर्नब ने मंद स्वर में संकुचाते हुए उत्तर दिया - “क्योंकि मेरे पास पहले से ही एक सेब है। “

जब भी कोई व्यक्ति आपको अपेक्षा के अनुरूप उत्तर न दे तो यह कतई न समझें कि वह गलत है। उसके पीछे भी कोई न कोई कारण हो सकता है। आप उस उत्तर को सुनें और समझने की कोशिश करें। लेकिन पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर न सुनें।

जब तूफान आये तब नींद लो


एक किसान का खेत समुद्र के तट पर था। उसने अन्य किसान को किराये पर लेने के लिए कई विज्ञापन दिये। लेकिन ज्यादातर लोग समुद्र तट पर स्थित खेत में काम करने के इच्छुक नहीं थे। समुद्र के किनारे भयंकर तूफान उठते रहते हैं जो जानमाल और फसलों को प्रायः नुक्सान पहुंचाते हैं। उस किसान ने कई लोगों का अपने सहायक के रूप में कार्य करने के लिए साक्षात्कार लिया परंतु सभी ने मना कर दिया।

अंत में एक ठिगने कद का दुबला-पतला अधेड़ व्यक्ति किसान के पास आया।

किसान ने उससे पूछा - "खेती-किसानी जानते हो?"

उस ठिगने आदमी ने उत्तर दिया - "मैं उस समय सो सकता हूं जब तूफान आ रहा हो।" यद्यपि वह उसके उत्तर से संतुष्ट नहीं था किंतु उसके पास उसे रखने के अलावा और कोई चारा नहीं था। वह ठिगना व्यक्ति सुबह से शाम तक खेत में काम में लगा रहता। किसान भी उसके काम से संतुष्ट था। एक रात समुद्र की ओर से तूफान की खौफनाक आवाजें आने लगीं। अपने बिस्तर से कूद कर किसान ने लालटेन संभाली और पड़ोस में स्थित उस व्यक्ति के आवास तक भांगता हुआ गया। उसने झटका देकर उस किसान को जगाया और कहा -"जल्दी उठो, तूफान आ रहा है। सभी चीजों को बांध लो ताकि तूफान उन्हें उड़ा न ले जाये।"

उस ठिगने आदमी ने करवट बदलते हुए कहा - "नहीं श्रीमान, मैंने आपसे पहले ही कहा था कि मैं उस समय सो सकता हूं जब तूफान आ रहा हो।"

उसके दोटूक उत्तर से किसान को बहुत गुस्सा आया। वह तत्काल उसे नौकरी से निकालना चाहता था लेकिन वह तूफान से बचाव के लिए बाहर भागा। उसे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि सूखी घास के ढेर तिरपाल से ढ़के हुए थे। सभी गायें अपने बाड़े और मुर्गियां अपने दरबे में थीं और दरवाजे बंद थे। शटर भी कसकर बंद था। हरचीज बंधी हुयी थी। कुछ भी उड़ नहीं सकता था।

किसान को तब जाकर उस आदमी की बात का अर्थ समझ में आया। वह भी अपने बिस्तर की ओर लोटा और आराम से सो गया।

जब कोई व्यक्ति आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार होता है तब उसे कोई भय नहीं होता। सूत्र वाक्य यह है कि बुरी से बुरी स्थिति के लिए भी तैयार रहो।


बुधवार, 9 मई 2012

पर्स में फोटो


यात्रियों से खचाखच भरी ट्रेन में टी.टी.ई. को एक पुराना फटा सा पर्स मिला। उसने पर्स को खोलकर यह पता लगाने की कोशिश की कि वह किसका है। लेकिन पर्स में ऐसा कुछ नहीं था जिससे कोई सुराग मिल सके। पर्स में कुछ पैसे और भगवान श्रीकृष्ण की फोटो थी। फिर उस टी.टी.ई. ने हवा में पर्स हिलाते हुए पूछा - "यह किसका पर्स है? "

एक बूढ़ा यात्री बोला - "यह मेरा पर्स है। इसे कृपया मुझे दे दें। " टी.टी.ई. ने कहा - "तुम्हें यह साबित करना होगा कि यह पर्स तुम्हारा ही है। केवल तभी मैं यह पर्स तुम्हें लौटा सकता हूं। " उस बूढ़े व्यक्ति ने दंतविहीन मुस्कान के साथ उत्तर दिया - "इसमें भगवान श्रीकृष्ण की फोटो है। " टी.टी.ई. ने कहा - "यह कोई ठोस सबूत नहीं है। किसी भी व्यक्ति के पर्स में भगवान श्रीकृष्ण की फोटो हो सकती है। इसमें क्या खास बात है? पर्स में तुम्हारी फोटो क्यों नहीं है? "

बूढ़ा व्यक्ति ठंडी गहरी सांस भरते हुए बोला - "मैं तुम्हें बताता हूं कि मेरा फोटो इस पर्स में क्यों नहीं है। जब मैं स्कूल में पढ़ रहा था, तब ये पर्स मेरे पिता ने मुझे दिया था। उस समय मुझे जेबखर्च के रूप में कुछ पैसे मिलते थे। मैंने पर्स में अपने माता-पिता की फोटो रखी हुयी थी।

जब मैं किशोर अवस्था में पहुंचा, मैं अपनी कद-काठी पर मोहित था। मैंने पर्स में से माता-पिता की फोटो हटाकर अपनी फोटो लगा ली। मैं अपने सुंदर चेहरे और काले घने बालों को देखकर खुश हुआ करता था। कुछ साल बाद मेरी शादी हो गयी। मेरी पत्नी बहुत सुंदर थी और मैं उससे बहुत प्रेम करता था। मैंने पर्स में से अपनी फोटो हटाकर उसकी लगा ली। मैं घंटों उसके सुंदर चेहरे को निहारा करता।

जब मेरी पहली संतान का जन्म हुआ, तब मेरे जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ। मैं अपने बच्चे के साथ खेलने के लिए काम पर कम समय खर्च करने लगा। मैं देर से काम पर जाता ओर जल्दी लौट आता। कहने की बात नहीं, अब मेरे पर्स में मेरे बच्चे की फोटो आ गयी थी। "

बूढ़े व्यक्ति ने डबडबाती आँखों के साथ बोलना जारी रखा - "कई वर्ष पहले मेरे माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। पिछले वर्ष मेरी पत्नी भी मेरा साथ छोड़ गयी। मेरा इकलौता पुत्र अपने परिवार में व्यस्त है। उसके पास मेरी देखभाल का क्त नहीं है। जिसे मैंने अपने जिगर के टुकड़े की तरह पाला था, वह अब मुझसे बहुत दूर हो चुका है। अब मैंने भगवान कृष्ण की फोटो पर्स में लगा ली है। अब जाकर मुझे एहसास हुआ है कि श्रीकृष्ण ही मेरे शाश्वत साथी हैं। वे हमेशा मेरे साथ रहेंगे। काश मुझे पहले ही यह एहसास हो गया होता। जैसा प्रेम मैंने अपने परिवार से किया, वैसा प्रेम यदि मैंने ईश्वर के साथ किया होता तो आज मैं इतना अकेला नहीं होता। "

टी.टी.ई. ने उस बूढ़े व्यक्ति को पर्स लौटा दिया। अगले स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही वह टी.टी.ई. प्लेटफार्म पर बने बुकस्टाल पर पहुंचा और विक्रेता से बोला - "क्या तुम्हारे पास भगवान की कोई फोटो है? मुझे अपने पर्स में रखने के लिए चाहिए। "



शनिवार, 5 मई 2012

मैं तुझे तो कल देख लूंगा।

सूफी संत जुनैद के बारे में एक कथा है.

एक बार संत को एक व्यक्ति ने खूब अपशब्द कहे और उनका अपमान किया. संत ने उस व्यक्ति से कहा कि मैं कल वापस आकर तुम्हें अपना जवाब दूंगा.

अगले दिन वापस जाकर उस व्यक्ति से कहा कि अब तो तुम्हें जवाब देने की जरूरत ही नहीं है.

उस व्यक्ति को बेहद आश्चर्य हुआ. उस व्यक्ति ने संत से कहा कि जिस तरीके से मैंने आपका अपमान किया और आपको अपशब्द कहे, तो घोर शांतिप्रिय व्यक्ति भी उत्तेजित हो जाता और जवाब देता. आप तो सचमुच विलक्षण, महान हैं.

संत ने कहा – मेरे गुरु ने मुझे सिखाया है कि यदि आप त्वरित जवाब देते हैं तो वह आपके अवचेतन मस्तिष्क से निकली हुई बात होती है. इसलिए कुछ समय गुजर जाने दो. चिंतन मनन हो जाने दो. कड़वाहट खुद ही घुल जाएगी. तुम्हारे दिमाग की गरमी यूँ ही ठंडी हो जाएगी. आपके आँखों के सामने का अँधेरा जल्द ही छंट जाएगा. चौबीस घंटे गुजर जाने दो फिर जवाब दो.

क्या आपने कभी सोचा है कि कोई व्यक्ति पूरे 24 घंटों के लिए गुस्सा रह सकता है? 24 घंटे क्या, जरा अपने आप को 24 मिनट का ही समय देकर देखें. गुस्सा क्षणिक ही होता है, और बहुत संभव है कि आपका गुस्सा, हो सकता है 24 सेकण्ड भी न ठहरता हो. 

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

जैसी होगी सोच वैसी ही मिलेगी कामयाबी

जैसी होगी सोच वैसी ही मिलेगी कामयाबी

दृष्टिकोण का जीवन में बहुत महत्व है। सकारात्मक विचार सफलता पाने के लिए बहुत जरुरी है। डा नार्मन विंसेट पील ने अपनी किताब द पावर आफ पाजिटिव प्रंसिपल्स टूडे में लिखा है कि किसी भी काम को करने से पहले उसके प्रति सकारात्मकता का भाव रखना बहुत जरूरी होता है। अगर आपकी सोच ही आपका साथ नहीं देती तो आप कोई भी काम कर लें उसमें आपको यथासंभव जीत को कतई नहीं मिलेगी। जीतने के लिए चार चीजों को होना आवश्यक है पहला है बल दूसरा विवेक, तीसरा धर्म और चौथा नजरिया। अगर इन चारों में से कोई भी एक चीज कम है तो समझ लीजिए आपकी सफलता में संदेह है। जीतने वाले पीछे किए गए कर्मों से प्रेरणा लेते हैं और असंभव शब्द को संभव करने के नजरिए से देखते हैं। ध्यान में रहे कि गलती करना यह सीखने का एक भाग है। जाने माने लेखक शिव खेडा ने अपनी किताब यू केन विन में लिखा है कि अगर आप सोचते हैं कि आप जीत सकते हैं तो आप निश्चित ही जीतेंगे। असंभव को संभव करना ही जीतने वालों का काम है।
‘असंभव कुछ नहीं, संभव हर काम है

कठिन राहों से गुजर कर जीना ही तो जीने का नाम है’।

सकारात्मक होने का एक और उदाहरण मिलता है महाकाव्य महाभारत से। महाभारत में जब अर्जुन अपने बाणों की दिशा भीष्म पितामाह की ओर करता है तो उसके हाथ कांपने लगते हैं। उसके पास बल, विवेक, धर्म ये तीन चीज तो होती हैं लेकिन उसका नजरिया साफ नहीं होता। वो कौरवों की सेना को मोह वश अपने सगे संबंधी और प्रियजन समझने लगता है जबकि जो भी व्यक्ति कौरवों की सेना से युद्ध् कर रहा था वो अधर्म का ही साथ दे रहा था। चाहे वो श्वेत आत्मा भीष्म पितामाह हों, या गुरु द्रोणाचार्य। अर्जुन के नजरिये को सही दिशा देने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया। उन्होंने कहा यदि तुम कर्म से सही नहीं सोच सकते तो तुम ये युद्ध् भी नहीं कर सकते।

सफलता पाने का ये भी अर्थ नहीं कि आप गलत रास्तों को इख्तियार करके अपनी मंजिल की ओर बढ़ें। अपने कर्तव्य का सही पालन करना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि अपने काम में जीत हासिल करना। कभी कभी असफलता मिलने पर हमारे अंदर हीन भावना पैदा हो जाती है और हमें अनेक नकारात्मक विचार घेर लेते हैं ऐसे समय में ये बाद सदा ध्यान में रखनी चाहिए कि कैसी भी परिस्थिति में जीतने वाले अपने आप को उबार लेते हैं। मन भटता है तो इंसान की सोच की दिशा भी भटक जाती है।

एक व्यक्ति एक प्रसिद्ध संत के पास गया और बोला गुरुदेव मुझे जीवन के सत्य का पूर्ण ज्ञान है। मैंने शास्त्रों का काफी ध्यान से मैंने पढ़ा है। फिर भी मेरा मन किसी काम में नही लगता । जब भी कोई काम करने के लिए बैठता हूँ तो मन भटकने लगता है तो मै उस काम को छोड़ देता हूँ । इस अस्थिरता का क्या कारण है ? कृपया मेरी इस समस्या का समाधान कीजिए ।
संत ने उसे रात तक इंतजार करने के लिए कहा रात होने पर वह उसे एक झील के पास ले गया और झील के अन्दर चांद का प्रतिविम्ब को दिखा कर बोले एक चांद आकाश में और एक झील में, तुमारा मन इस झील की तरह है तुम्हारे पास ज्ञान तो है लेकिन तुम उसको इस्तेमाल करने की बजाए सिर्फ उसे अपने मन में लाकर बैठे हो, ठीक उसी तरह जैसे झील असली चांद का प्रतिविम्ब लेकर बैठी है। तुमारा ज्ञान तभी सार्थक हो सकता है जब तुम उसे व्यहार में एकाग्रता और संयम के साथ अपनाने की कोशिश करो । तुम्हे अपने ज्ञान और विवेक को जीवन में नियम पूर्वक लाना होगा और अपने जीवन को जितना सार्थक और लक्ष्य हासिल करने में लगाना होगा। अपने मन को काबू में करके अपना स्वयं का विश्वास जीत कर ही सफलता के झंडे गाडे जा सकते है। विश्वास और सकारात्मक नजरिए से ही हर मुश्किल से सामना किया जा सकता है।

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

संसार का सबसे दुःखी इंसान

राजा का दरबार लगा हुआ था। उस दिन दरबार मे चर्चा का विषय था कि इस संसार में सबसे दुःखी इंसान कौन है?
सभी दरबारियों ने अपनी-अपनी राय रखी। सभी दरबारियों में आपस में मतभेद था। अंततः वे सभी इस नतीजे पर पहुंचे कि यदि कोई गरीब और बीमार हैं तो वह सबसे ज्यादा दुःखी है।

इस नतीजे से राजा संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने अपने सबसे समझदार दरबारी चतुरनाथ की ओर देखा, जिसने सारी बहस चुपचाप सुनी थी। राजा ने चतुरनाथ से पूछा - "तुम्हारी इस बारे में क्या राय है?"

चतुरनाथ ने उत्तर दिया - "हे महाराज! मेरी इस बारे में विनम्र राय यह है कि जो व्यक्ति ईर्ष्यालु और द्वेषी है, वह हमेशा दुःखी रहता है। वह दूसरा को अच्छा कार्य करते हुए देखकर दुःखी होता है। उसका चित्त कभी शांत नहीं रहता। वह हमेशा शंकालु रहता है। वह दूसरों का भला होते देख नफरत से भर जाता है। ऐसा इंसान ही संसार में सबसे ज्यादा दुःखी होता है।"