शनिवार, 13 जुलाई 2013

नमक स्वादानुसार.......(एक लघुकथा..)

आसमान मे टिमटिमाते तारे, वो उधार की रोशनी से चमकता चाँद भी वो रोशनी नही दे पा रहे थे, जो केरोसीन भरी एक शीशी मे लटकी बाती जल जलकर उस छोटे से खंडहर को दे रही थी ... पन्नी से ढकी छत ... हवाओं के थपेड़ों से उनकी फट फट की आवाज़ .... पर कोने मे सजी ईंटों का बोझ और उन ईंटों मे छिपी कुछ उम्मीदों का बोझ उस पन्नी की उच्छृंखलता पर लगाम लगाए हुए थे ... और उन थपेड़ों मे लहराती लौ में चमकती दो उम्मीदें उस खंडहर को घर बना रही थी ... दिन भर की मेहनत ... और उससे हुई पसीने रूपी कमाई ... अब मजदूरो की यही तो कमाई होती है दूसरी कमाई किसकाम की ... 1 रुपये कमाने मे 1 लीटर पसीना तो बह ही जाता होगा, पर उससे 100 ग्राम तेल भी नही मिलता ... आँखों मे सन्नाटा था ... पर उस घर के सन्नाटे को एक ट्रांजिस्टर तोड़ रहा था ... पर कम्बख़्त वो ट्रांजिस्टर भी खड़बड़ खड़बड़ करके बीच बीच मे बेताला हो जाता था ... उस खड़बड़ में साँवले हाथो की चूड़ियों की खन खन और उसके पति की खाँसी की ठन ठन ताल से ताल मिला रहे थे ... फिर उस औरत ने चूल्हे की ओर रुख़ किया ... चूल्हा क्या बस वही था जो कभी कभी बच्चे खेल खेल मे ईंटों से बना देते हैं ... उसी मे कुछ अधज़ली खामोश लकड़ियाँ पड़ी थी ... वो भी सोचती होंगी कम्बख़्तों रोज़ थोड़ा थोड़ा जलाते हो कभी पूरा ही जला दो ... पर वो भी कहें क्या जानती हैं वो पूरा जल गयी तो जाने इस चूल्हे का आँगन कब तक सूना रहेगा ... सीली माचिस की डिब्बी मे दुबकी बैठी एक तीली उन साँवले हाथों ने निकाली ... फिर खाली मन और गीली माचिस मे कुश्ती शुरू हो गयी ... तभी ट्रांजिस्टर से मलाई कोफ्ता बनाने की विधि बताई जाने लगी ... अब ट्रांजिस्टर बेचारा आदमी तो है नहीं कि अमीर ग़रीब मे फ़र्क कर पाए ... पर यहाँ तो कुछ अजीब ही हुआ ... जाने उन दोनो को क्या सूझी दोनो ही ट्रांजिस्टर के करीब आके सुनने लगे ... ट्रांजिस्टर कुछ कुछ बकता रहा ... और दोनो ध्यान से सुनते रहे .... फिर अंत मे आवाज़ आई ... "नमक स्वादानुसार" ... दोनो ने एक दूसरे की तरफ देखा, फिर मकड़ी के जाले लगे कुछ टूटे डब्बों की ओर ... कुछ औंधे मुँह पड़े थे ... जैसे मुँह चिढ़ा रहे हो की बड़े आए मलाई कोफ्ता खाने वाले ... पर वो क्यूँ चिढ़ते उन्हे तो इसकी आदत थी ... दोनो खूब ज़ोर से हँसे ... चूल्हे की आग मे जलकर तवे ने कुछ रोटियों को जन्म दिया .... फिर कुछ खाली डब्बों को खंगालने की कोशिश हुई ... फिर आराम से बैठकर बड़े प्यार दोनो ने वो रोटियाँ मलाई कोफ्ते के साथ खाई ... क्या बात करते हो ग़रीब और मलाई कोफ्ता ... . हाँ मलाई कोफ्ता ही तो था ..... बस उसमे न मलाई थी न कोफ्ता ... था तो बस ... "नमक स्वादानुसार" .... ट्रांजिस्टर की आवाज़ भी धीमी होकर बंद हो गयी .... शायद अब उसके पास भी कहने को कुछ नही बचा था ....

सभी सामग्री इंटरनेट से ली गई है

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