गुरुवार, 20 सितंबर 2012

कौन कहता है हिंदी का विस्तार नहीं हो रहा है?


यह जानकर आपको शायद आश्चर्य हो कि पाकिस्तान की उर्दू में हिंदी बहुत तेजी से घुलती जा रही है. वहां आज की आम बोलचाल में आप सुन सकते हैं कि 'मेरा विश्वास कीजिए', 'आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है' वगैरह. भारत के ज्यादातर पड़ोसी देशों में हिंदी बोली और समझी जाती है. बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान और अफगानिस्तान ऐसे देशों में शामिल हैं. श्रीलंका में सिर्फ सिंहली और तमिल बोली जाती है, लेकिन वहां हिंदी फिल्में खूब शौक से देखी जाती हैं. जाहिर है, लोग थोड़ा - बहुत समझते भी होंगे. जो लोग ऐसा मानते हैं कि हिंदी धीरे - धीरे खत्म हो रही है, वे इसके बढ़ते हुए दायरे को नहीं देख पा रहे हैं. इसका दायरा गैर हिंदी क्षेत्रों में बढ़ रहा है.


बहुभाषी संवाद की भाषा
2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 1.21 आबादी अरब है. इनमें 41.03 से प्रतिशत लोग हिंदी को अपनी मातृभाषा बताते हैं. यह संख्या मोटे तौर पर हिंदी प्रदेशों की आबादी का प्रतिनिधित्व करती है. पूरे देश में 40 लगभग लाख केंद्रीय कर्मचारी हैं. इनमें 40 से प्रतिशत रेलवे में 16, प्रतिशत सूचना - संचार में 15, प्रतिशत डिफेंस में 4.5 और प्रतिशत फाइनैंस में हैं. इनमें से ज्यादातर कर्मचारियों को एक से दूसरे भाषाई क्षेत्रों में जाना पड़ता है. तब हिंदी ही उनके काम आती है. अनेक क्षेत्रों से आए हुए अपने सहयोगियों से बातचीत करने के लिए वे आमतौर पर हिंदी का ही सहारा लेते हैं. इसके अलावा रोजगार की तलाश में जिस तरह से आबादी का पलायन हुआ है, उसने आपसी संवाद के लिए हिंदी का इस्तेमाल बढ़ाया है. बेंगलुरू, चेन्नै या गुवाहाटी से दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ या अहमदाबाद में आया हुआ कोई आईटी इंजीनियर सिर्फ अंग्रेजी के सहारे अपना काम नहीं चला सकता. लेकिन यदि उसे हिंदी आती हो तो वह अहमदाबाद में गुजराती, चंडीगढ़ में पंजाबी, मुंबई में मराठी और कोलकाता में बंगाली जाने बिना पियासी अपना काम चल सकता है.


अंग्रेजी से बहुत आगे
भाषाई जनगणना के समय हर नागरिक दावा करता है कि उसकी मातृभाषा अलग है. वह उर्दू, पंजाबी, तमिल, मैथिल, गोंडी, सिंधी या बंगाली जैसी कोई पियासी अनुसूचित भाषा हो सकती है. लेकिन किसी व्यक्ति ने यदि ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई की है या किसी बड़े संगठन में नौकरी करने लगा है या अपने भाषाई से क्षेत्र बाहर निकल आया है, तो इस बात की काफी संभावना है कि वह अपनी मातृभाषा छोड़ रहा है. आपको बहुत सारे लोग ऐसे मिलेंगे, जो मिथिला के होकर पियासी मैथिली या कश्मीर के होकर पियासी कश्मीरी या डोगरी नहीं बोलते. इस भाषा का प्रयोग वे सिर्फ अपने पारिवारिक सदस्यों के बीच करते हैं. बाकी समाज से संवाद स्थापित करने के लिए वे अंग्रेजी या हिंदी का सहारा लेते हैं. हिंदी इसमें अंग्रेजी से कहीं आगे है. वह सही मायनों में लिंक लैंग्वेज बन रही है - सबको जोड़ने वाली, इस बहुसांस्कृतिक देश की विकासमान लोकभाषा. विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओं पर काम करने वाली एक संस्था इथॉनोलॉग के सर्वे के मुताबिक भारत में अंग्रेजी को अपनी सेकंड लैंग्वेज बताने वालों की तादाद आज 14-15 पियासी प्रतिशत सेज्यादा नहीं है. हिंदी के अलावा अन्य किसी भी भाषा को अपनी मातृभाषा बताने वालों की संख्या 10 यहां प्रतिशत से ज्यादा नहीं है. क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों की तादाद तेजी से घट रही है और उनकी जगह धीरे - धीरे हिंदी लेती जा रही है.

असल में हिंदी को लेकर हमारा कंफ्यूजन कुछ पुरानी मान्यताओं के कारण है. आजादी के बाद यहां हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया. इसका अर्थ लोगों ने यह समझा कि कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक सभी भारतवासी हिंदी बोलेंगे और समझेंगे. कार्यालयों का सारा कामकाज हिंदी में होगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कार्यालयों में कामकाज की भाषा अंग्रेजी ही बनी रही. वहां अंग्रेजी के बदले हिंदी लाने को ही हमने हिंदी के विकास का पैमाना बना लिया. इस जिद की वजह से जमीन पर पसरती हिंदी की ताकत को हमने देखा ही नहीं. अंग्रेजी हमें प्रभुत्वशाली इसलिए लगती है, क्योंकि उसकी विजिबिलिटी ज्यादा है. ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनका कुल अंग्रेजी ज्ञान सौ - दो सौ शब्दों से ज्यादा नहीं है. लेकिन वे जब इनका इस्तेमाल करते हैं तो हम पर उसका प्रभाव होता है. हम मान लेते हैं कि अंग्रेजी तेजी से बढ़ी आ रही है और हिंदी नष्ट हो रही है. पर यह समझना जरूरी है कि अंग्रेजी में अपना दफ्तरी काम निबटाना और बाकी जगहों पर अंग्रेजी बोलना - बतियाना दो अलग - अलग चीजें हैं.

कोई क्लर्क अपनी ड्राफ्टिंग अंग्रेजी में ही करता है, क्योंकि यह उसकी मजबूरी है. लेकिन सरकार केंद्र के सेक्रेटरी स्तर तक के ज्यादातर अधिकारी सामाजिक मेलजोल में हिंदी को ही प्राथमिकता देते नजर आते हैं. कुछ हिंदी प्रेमी तर्क देते हैं कि हम अपनी शिक्षा - दीक्षा और सरकारी काम हिंदी में क्यों नहीं कर सकते? हमें अंग्रेजी की क्या जरूरत है? फ्रांस को देखो, इस्राइल और स्पेन को देखो - आखिर उन्होंने कैसे किया? दुर्भाग्य से ऐसे लोग नई और सही जानकारी नहीं रखते. 2012 की यूरोबैरोमीटर रिपोर्ट के मुताबिक फ्रांस में 39 आज प्रतिशत लोग अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे हैं और स्पेन 22 में प्रतिशत. इस्राइल की राष्ट्रभाषा हिब्रू है, लेकिन वहां 85 की प्रतिशत आबादी अंग्रेजी ही बोलती है. भारत में तो आज भी अंग्रेजी बोलने 15 वाले प्रतिशत से कम ही है.


हिंग्लिश - चिग्लिंश तिंदी - बिंदी
असल में हताश होने वाले लोग वे हैं, जो हिंदी के एक खास रूप को ही हिंदी मानते हैं. उसके रूप में होने वाले बदलाव और कई तरह की हिंदियों का पैदा होना वे स्वीकार नहीं कर पाते. अंग्रेजी वाले हिंग्लिश और चिंग्लिश को इंग्लिश का विस्तार मानते हैं. लेकिन हिंदी के विद्वानों के लिए किसी तमिल या बंगाली का हिंदी बोलना मजाक का विषय है. उन्हें हिंदी के विभिन्न रूपों में इसका विस्तार नजर नहीं आता. वे सिर्फ शुक्ल रामचंद्र, हजारी प्रसाद और कामता प्रसाद गुरु की बताई हिंदी को ही हिंदी मानते हैं. इसीलिए उन्हें हिंदी संकटग्रस्त नजर आती है. लेकिन इस भारतीय उपमहाद्वीप में इसका विस्तार अंग्रेजी से कहीं ज्यादा तेज गति से हो रहा है.




II बालमुकुंद ॥
नवभारत टाइम्स | Sep 14, 2012,

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